तर्ज - चलते चलते यू हीं रुक जाता हूँ मै

जन्मो-जन्मो से यूं आता जाता रहा ।
लाख चक्कर चौरासी के लगाता रहा ।।
पा कर नरभव को भी यूं गंवाता रहा ।
ना मिला ज्ञान है ,
ना किया ध्यान है ।
मुक्तिपुर जाने का ,
बस अरमान है ।।

गुरुवर कहते है जो क्यो नहीं मानते ।
तेरा ज्ञान तुझमे ही है ,क्यो नहीं जानते ।।
भूले अपने को दर-दर,तुम भटकते रहे ।
अपने को पर का करता ही तुम समझते रहे ।।
हाय ये क्या करते रहे
ना किया ध्यान है,
ना मिला ज्ञान है ।


जब जिनवाणी सुनी, तो मिली राहत सी है ।
जो जिनवाणी कहे ,वो हकीकत ही है ।।
जिनवाणी का आश्रय लेकर,हम संवरने लगे ।
भेदज्ञान से शुद्धातम को ,परखने लगे ।।
"अंतिम "तुम क्या करते रहे
ना किया ध्यान है,
ना मिला ज्ञान है।
मुक्तिपुर- ---

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