आतम रूप अनूपम अद्भुत, याहि लखैं भव सिंधु तरो ॥टेक॥

अल्पकाल में भरत चक्रधर, निज आतमको ध्याय खरो

केवलज्ञान पाय भवि बोधे, ततछिन पायौ लोकशिरो ।१।

या बिन समुझे द्रव्य-लिंगमुनि, उग्र तपनकर भार भरो

नवग्रीवक पर्यन्त जाय चिर, फेर भवार्णव माहिं परो ।२।

सम्यग्दर्शन ज्ञान चरन तप, येहि जगत में सार नरो

पूरव शिवको गये जाहिं अब, फिर जैहैं,यह नियत करो ।३।

कोटि ग्रन्थको सार यही है, ये ही जिनवानी उचरो

`दौल' ध्याय अपने आतमको, मुक्तिरमा तब वेग बरो ।४।

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